"अध्यात्मिक और भौतिक जगत”
भगवान भौतिक जगत को एक वृक्ष द्वारा समझाते हैं।
यह वृक्ष
आध्यात्मिक जगत का प्रतिबिंब है बतलाते हैं।।
इस वृक्ष को
जानने वाला वेदों का ज्ञाता कहलाता है।
पत्तियाँ वैदिक स्तोत्र इसकी, अश्वत्थवृक्ष कहलाता है।।
जड़े तो इसकी
ऊपर बढ़ती, शाखाएं
नीचे फैलती हैं।
ये जल नहीं
प्रकृति के तीन गुणों से पोषित होती हैं।।
शाखाओं के सिरे
इंद्रियाँ व इंद्रिय विषय टहनियाँ है।
सहायक जडें
राग-द्वेष हैं जो कष्टों की दुनियाँ है।।
कुछ जड़े नीचे
जाती वे सकाम कर्मों से बाँधती हैं।
ऊपर की जडें
हमें ब्रह्मलोक का मार्ग दिखलाती हैं।।
इस अश्वत्थ
वृक्ष का वास्तविक स्वरूप क्या होता है?
इस जग में हमको इसका अनुभव नहीं हो सकता है।।
इस वृक्ष का न कोई आदि-अंत है न कोई आधार है।
इसकी जडें
काटने का शस्त्र, वैराग्य
की तलवार है।।
उसकी बाद ग्रहण
करनी होगी हमें परमेश्वर की शरण।
वही इस पुरातन
संसार के, विस्तार
का हैं मूल कारण।।
उनकी शरण
मिलेगी, इसी शाश्वत
तत्व को समझकर ।
बुरी संगति को
त्यागकर, झूठी प्रतिष्ठा
से मुक्त होकर।।
नष्ट करके सभी
अपने ये लोभ, क्रोध, मोह और काम।
सुख-दुख में
एकसा होकर ही, प्राप्त
होगा शाश्वत धाम।।
ये मेरा शाश्वत धाम प्रकाशित होता रहता है स्वयं ही।
न आवश्यकता
सूर्य चन्द्र की न अग्नि के प्रकाश की।।
मेरे धाम आकर
कोई, इस जगत में
वापस नहीं जाता।
भौतिक जगत का
हर जीव मेरा ही अंश हैं कहलाता।।
इस जगत में वो
मन-इंद्रियो, से
संघर्ष करता रहता है।
देहान्त पश्चात
आत्मा मन की चेतना को ले चलता है।।
जैसे पवन सुमन
की महक अपने संग लेकर उडता है।
चेतना अनुसार ही हमारा नया शरीर निर्धारित होता है।।
इस तरह आत्मा
को नया शरीर धारण करना पडता है।
नई देह में फिर
से ये इन छ: इन्द्रियों से भोग करता है।।
मूर्ख नहीं समझ
सकते जीवन कैसे जीना और मरना है।
केवल ज्ञानी ही
समझ पाते इस शरीर का क्या करना है।।
आत्म
साक्षात्कार द्वारा जीवन के उद्देश्य को पाना है।
अज्ञानियों की भाँति ये मानव जीवन व्यर्थ नहीं करना है।।
मैं ही सूर्य
का तेज, जो जग का
अंधियारा दूर करता है।
चंन्द्र और
अग्नि का तेज भी मुझसे ही उत्पन्न होता है।।
मेरी शक्ति से
ही ये पृथ्वी सूर्य के चारो ओर घूमती है।
सारे ग्रह
नक्षत्रों की गति मेरे द्वारा ही नियंत्रित रहती है।।
चंद्रमा द्वारा
मै ही वनस्पतियों के अंदर स्वाद बढाता हूँ।
जीवों की पाचन
अग्नि को भी, मैं ही
प्रज्वलित करता हूँ।।
प्राणवायु
द्वारा हर भोजन को पचाने की शक्ति देता हूँ।
मैं प्राणी के
ह्रदय में परमात्मा रूप मे स्थित रहता हूँ।।
स्मृति ,विस्मृति कराने वाली बुद्धि का मैं
ही दाता हूँ।
मैं ही वेदों
का उद्देश्य, वेदों
का कर्ता और ज्ञाता हूँ।।
भौतिक जगत का
प्रत्येक जीव तो नाशवान होता है।
वो गलतियां भी
करता है और भ्रम में भी जीता है।।
आध्यात्मिक जगत
वालों का तन अविनाशी होता है।
ना कोई भ्रम ना
गलती करता, अच्यूत
कहलाता है।।
पर मैं तीनों लोकों का परम पुरुष हूँ, परमात्मा हूँ ।
तीन लोकों में
प्रवेश करके सब का पोषण करता हूँ।।
वेदों में भी
सर्वश्रेष्ठ पुरुष के रूप में मैं हूँ विख्यात।
मेरा स्वरूप
जिसको बिना संशय के हो जाता है ज्ञात।।
हे
भरतपुत्र! वह मेरी प्रेम भक्ति में रहता पूर्णत: रत है।
यह वैदिक
शास्त्र का ज्ञान सब के लिये बहुत गुप्त है।।
जो मुझको समझने
का और जानने का प्रयास करता है।
उसका प्रयास
पूर्ण होता है वह बुद्धिमान कहलाता है।।
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