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 बच्चों से ही घर का कोना कोना सजता है,

बिन बच्चों के तो ये घर अब सूना लगता है।

हँसते गाते रोते लडते कब गुजरे वो दिन,

हर दिन अब तो खामोशी में दूना लगता है।

बच्चों से ही घर का कोना कोना सजता है,

बिन बच्चों के तो ये घर अब सूना लगता है।

फैला कमरा बिखरा बिस्तर अब कैसे ढूँढें,

परदा भी उनके बिन अब सहमा सा दिखता है।

बच्चों से ही घर का कोना कोना सजता है,

बिन बच्चों के तो ये घर अब सूना लगता है।

जिम्मेदारी में डूबे वे दिखते जब  हमको,

उनके बिन भी घर में उनका साया दिखता है।।

बच्चों से ही घर का कोना कोना सजता है,

बच्चों के बिन तो ये घर अब सूना लगता है।

पूछे कोई आएँगें कब बच्चे मिलने को  ,

उँगली पर दिन गिनना सच में अच्छा लगता है।

बच्चों से ही घर का कोना कोना सजता है,

बच्चों के बिन तो ये घर अब सूना लगता है।

 

 

 

 

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