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कहानी 2 गीता रथ कुछ कहता है (भगवद्गीता सरल कहानियाँ)

 


गीता रथ कुछ कहता है

दृश्य 1: दादाजी का कमरा
(राहुल उत्साहित होकर दौड़ता हुआ दादाजी के पास आता है। दादाजी आराम कुर्सी पर बैठे हैं।)

राहुल: (उछलते हुए) "दादाजी! दादाजी! पता है आपकी वीडियो पर अब तक के सबसे ज़्यादा व्यूज़ आए हैं। सब लोग कह रहे हैं कि आगे भी कहानी सुननी है। प्लीज़ दादाजी, आगे भी सुनाइए ना।"

दादाजी: (मुस्कुराते हुए) "फिर से वीडियो बनाएगा राहुल?"

राहुल: (मोबाइल हाथ में लेकर हँसते हुए) "हाँ, दादाजी!"

दादाजी: "तो पहले गीता की किताब और मेरा चश्मा उठा ला। और ये बता, पिछली वीडियो से क्या सीखा?"

राहुल: (कुर्सी के चक्कर लगाते हुए, हाथ ऊपर घुमाते हुए) "दादाजी, मैंने सीखा था कि हमारे अंदर ही गुणों के पांडव और अवगुणों के कौरव रहते हैं। हमें बाहर किसी से युद्ध नहीं करना होता, हमें स्वयं से युद्ध करना है। अपने गुणों को शस्त्र बनाकर अपने अवगुणों को हराना है। जिसमें भगवान कृष्ण हमारी मदद सारथी बनकर करते हैं।"

दादाजी: "बहुत बढ़िया, राहुल! अब बैठ जाओ और बताओ, क्या तुमने यह युद्ध करने की कोशिश की?"

राहुल: "हाँ दादाजी, मैंने अपने अंदर के कौरव और पांडव को पहचानने की कोशिश की।"

दादाजी: "वाह, बहुत अच्छा राहुल! धीरे-धीरे तुम इस युद्ध को लड़ना भी सीख जाओगे। अच्छा, अब कैमरा ऑन करो और आज की वीडियो शुरू करते हैं।"

(राहुल कैमरा ऑन करता है। दादाजी गीता की किताब को दिखाते हैं।)

दादाजी: "सबसे पहले इसके कवर पेज से शुरू करते हैं। राहुल, क्या तुम बता सकते हो कि गीता के कवर पर क्या चित्र बना है?"

राहुल: "दादाजी, इसमें एक रथ बना है जिसमें अर्जुन बैठे हैं और भगवान कृष्ण रथ चला रहे हैं।"

दादाजी: "हाँ, बिल्कुल सही! अब ध्यान से देखो, ये रथ कैसा है और कैसे चलता है?"

राहुल: "रथ में चार घोड़े बँधे हुए हैं और इनकी नाक पर रस्सी लगी है। दादाजी, इसे ही लगाम कहते हैं ना? इससे घोड़ों को नियंत्रित किया जाता है। अगर लगाम न हो तो घोड़े इधर-उधर भागेंगे और रथ सीधा नहीं चलेगा।"

दादाजी: "बिल्कुल सही, बेटा! जैसे मम्मी जब डाँटती हैं तो तुम काम करने लगते हो, वैसे ही लगाम घोड़ों को सही दिशा में चलने में मदद करती है।"

राहुल: (हँसते हुए) "तो मम्मी क्या घोड़ों की लगाम हैं?"

दादाजी: (मुस्कुराते हुए) "हाँ बेटा, कुछ हद तक। और लगाम पकड़ता कौन है? सारथी! सोचो, सारथी कौन हुआ?"

राहुल: "मम्मी पापा की बात सुनती हैं, तो पापा सारथी हुए?"

दादाजी: (हँसते हुए) "अरे नहीं, मैं उदाहरण कुछ और दे रहा था।तुम मम्मी पापा को बीच में ले आए। अब राहुल ध्यान से सुनो

"अब हम इस रथ और घोडे को समझते हैं ये वास्तव में हैं क्या ? ये रथ हमारा शरीर है और ये जो घोड़े हैं, ये हमारी इंद्रियाँ हैं। इंद्रियाँ पता है राहुल क्या होती है।  तुमने पाँच सैंस ओरगन पढ़े हैं न ?

राहुल: हाँ हाँ वो तो मैने बचपन में पढ़े थे दादाजी ।

दादाजी :अब याद है तो बताओ कौन कौन से होते हैं ?

राहुल: आँख छूकर आँख, नाक पकडकर, कान पकडकर, त्वचा को छूते हुए और जीभ को बाहर निकालकर दिखाते हुए बताता है ।

दादाजी : वाह एकदम सही तुम्हे सब याद है बहुत बुद्धिमान है हमारा राहुल । ये पाँच सैंस ओरगन हमारी ज्ञान इंद्रियाँ होती हैं—आंख, नाक, कान, जीभ और त्वचा।
त्वचा से स्पर्श करके हम बता सकते हैं कि कोई चीज कैसी है मेरे हाथ में किताब है  ये बिना देखे स्पर्श करके बता सकते हो कि ये किताब है । आँखों से हम देख सकते हैं कि कोई वस्तु कैसी है, कानों से सुनकर बता सकते हैं, नाक से सूँघ कर। क्या तुम सूँघकर बता सकते हैं रसोई में क्या बन रहा है कुछ खुशबु आ रही है क्या
?

राहुल: हाँ दादाजी ऐसा लग रहा है मम्मी हलुआ बना रही हैं । सही पहचाना हलुआ ही बन रहा है,

दादाजी:  मम्मी ने हलुआ कैसा बनाया ये जीभ से स्वाद ले कर बता सकते हो। अब तुम्हारी नाक इंद्री यदि तुमसे  कहे कि पहले हलुआ खाले राहुल बाद में दादा जी को सुनना । और तुम भाग कर चले जाओ हलुआ खाने, ये सही होगा या गलत।

राहुल: अगर मैं आपसे पूछ कर जाऊँ तब सही होगा न दादाजी हाँ राहुल तब सही होगा ना दादाजी ।

दादाजी:  पर अगर बिना पूछे चले गये तो इसका अर्थ होगा कि तुमने अपनी इंद्री की सुनी है । अपनी बुद्धि की नहीं, तो हमें ये समझाने के लिये हमारे पास मन होता है फिर  बुद्धि होती है कि हमें अभी भाग कर जाना है या पूछकर बाद में जाना है । ऐसे ही ये घोडे हैं। ये हमारी पाँच इंद्रियाँ हमें कुछ न कुछ बताती रहती है । खेलने जा राहुल, अभी टीवी देख ले राहुल, अभी म्युजिक सुन ले राहुल, भूख लगी है राहुल अभी सो जा राहुल। इन इंद्रियों पर जो लगाम लगाता है वो कहलाता है हमारा मन । अगर मन की लगाम ढ़ीली छोड दो तो ये घोडे रूपी इंद्रियों के साथ मन भी इधर उधर भागने लगता है

राहुल: घोड़ो की तरह तुडक तुडक भागता है ।

दादाजी: और यदि मन को कस दो तो ये मन इंद्रियो को रोक लेता है पर ये मन होता है ना जैसा हमने पहले कहा माँ जैसा कोमल प्यारा होता है कई बार तो डाँटकर मना कर देता है पर कई बार तुम्हारी मम्मी की तरह राहुल की जिद सुनता है।

दादाजी (हँसकर) राहुल के सिर पर हाथ फेरते हुए कहते है । इंद्रियाँ राहुल जैसी मासूम और शैतान। कभी अच्छी बात के लिये जिद लगाती हैं कभी गलत चीज के लिए । पर अगर रथ को सही से चलाना है तो लगाम को  किसी की मदद लेनी होती है ।

राहुल: किसकी पापा सारथी की । ये पापा सारथी कौन हुए मैं बताऊँ दादाजी ये पापा सारथी हैं बुद्धि।

दादाजी:  सही पहचाना राहुल तो मन को बुद्धि की सहायता लेनी होती है और इन्द्रियो जैसे चंचल बच्चे को  समझाना होता है । तो मम्मी पापा की तरह मिलकर मन और बुद्धि से इन्द्रियों को समझाना है, बताना है क्या सही है क्या गलत तभी तुम सही कार्य सरलता से जल्दी से  सही से कर पाओगे । तो क्या समझा राहुल ?

राहुल: यही दादाजी की कोई काम करने से पहले मन बुद्धि सारथी से पूछे फिर मन इंद्रियों को बताएँ  तब उस काम को करें । तो दादाजी मेरे अंदर पापा सी बुद्धि मम्मी सा मन और बच्चो जैसी इंद्रियाँ हैं

दादाजी:  अब समझ आया राहुल कि कोई काम करने से पहले पापा या बडो से पूछना क्यों जरूरी होता है।  जो बुद्धि की सुनता है और मन की लगाम से घोडो को सही सडक पर दौडाता है उसका रथ सही रास्ते पर चलकर सही मंजिल को पा जाता है और जो हर घोड़े रूपी इंद्री की सुनता है वो भी एक नहीं पाँच इन्दियों की तो इधर उधर भटकता रहता है। इसलिये घोडो पर लगाम जरूरी है और राहुल को मम्मी की डाँट जरूरी है ।

राहुल: और मम्मी को भी मुझे डाँटने से पहले पापा से पूछना जरूरी है ना दादाजी । सही कहा न मैने हाँ सही कहा

दादाजी: "बिल्कुल सही! जब मन और बुद्धि मिलकर काम करते हैं, तो इंद्रियाँ सही दिशा में चलती हैं। और जो हर घोड़े की बात सुनता है, वो इधर-उधर भटक जाता है। इसलिए मन पर नियंत्रण जरूरी है।"

राहुल: "तो दादाजी, मम्मी की डाँट मेरी लगाम है और पापा की सलाह मेरा सारथी!"

दादाजी: "सही पकड़ा बेटा! अब चलो, रथ रूपी अपने शरीर को प्रस्थान करने दो।"

राहुल: "मतलब वीडियो ऑफ कर दूँ और जाऊँ?"

दादाजी: "हाँ बेटा, लेकिन पहले मम्मी से पूछो हलुआ बन गया क्या? फिर हम दोनों साथ में खाएँगे।"

(राहुल रसोई से गर्म-गर्म हलुआ लाता है और दोनों मजे से हलुआ खाते हैं।)

अंत।

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