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Showing posts from August, 2020

ऐ मेरे चंचल मन

ऐ मेरे चंचल मन,तेरी ये मनमानियाँ। क्यों करवाती हैं मुझसे,ये गुस्ताखियाँ।। एहसास नहीं तुझे,क्या-क्या ये करवाती हैं। नदिया की धार से मचलती ही जाती हैं।। तेरी खातिर मैं इनकी हर बात सहती हूँ। इनकी ख्वाहिश के लिये दुनिया से लड़ती हूँ।। पर ये फिर से नई-नई फरमाइशे ढूँढ लाती हैं। मना करने पर मेरे, खफा-खफा सी रहती है।। ये जिद्दी, ये बलशाली, मुझे यूँ भटकाती है। दिन रात मेरे ख्यालों में मँडराती रहती हैं। कैसे इनको मैं समझाऊँ,कैसे इनको सँभालू मैं। हरा कर मुझे खुद से,ये सब से हरा डालती हैं।।

पत्नी का दर्द

 

कर्म, अकर्म, विकर्म का भेद

   अध्याय - 4  भाग -2 कर्म अकर्म , विकर्म का भेद कृष्ण बोले , अब मैं कर्म अकर्म, का भेद समझाता हूँ। बुद्धिमानो को भ्रमित करे जो, वो सब मैं बतलाता हूँ।। इसको जानकर तुम अशुभ, कर्म से मुक्त हो जाओगे। कर्म करके भी तुम कर्म-बंधनों, में नहीं बँध पाओगे।। समझना कठिन है बहुत, इन कर्म की बारीकियों को। कर्म, विकर्म और अकर्म के, भेद की जानकारियों को।। अकर्म वह कर्म है जिसमें, कर्म का कोई बंधन ना हो। विकर्म ऐसा कर्म है जिसमें, शास्त्रों का नियम ना हो।। हे अर्जुन! कर्म करो ऐसे, कि बस वो अकर्म बन जाए। कर्मों का सभी फल सिर्फ, भगवान को अर्पित हो जाए।। कर्मों को अकर्म कर ले जो, वो बुद्धिमान कहलाता है। प्रयास करते करते निजकामना से रहित हो जाता है।। कर्मफलों को भक्तिअग्नि में भस्म करता रहता है। कर्मों की आसक्ति त्याग कर, सदा संतुष्ट रहता है।। शरीरनिर्वाह के लिये ही,बस धन का उपयोग करता हैं। सारी संपत्ति प्रभु की व खुद को रखवाला समझता है। वह सफल हो या असफल, द्वेष ईर्ष्या नहीं करता है। इसलिये प्रकृति के तीन गुणों में कभी नहीं फँसता है।। इनके सभी किए गए ...

अध्याय 4 (दिव्य ज्ञान का प्रथम भाग) गीता का इतिहास

अध्याय 4   ( दिव्य ज्ञान का प्रथम भाग ) गीता का इतिहास भगवान बोले,हे अर्जुन! मैं आज गीता का इतिहास बताता हूँ। कब किसको ये अमरज्ञान दिया, सब मैं तुमको समझाता हूँ।। सबसे पहले दिया था सूर्यदेव को, जो कहलाते हैं विवस्वान। उसके बाद मनुष्यों के जनक,मनु को दिया यह दिव्य ज्ञान।। मनु ने पुत्र इक्ष्वाकु को, यह ज्ञान देकर किया अपना काज। इक्ष्वाकु थे राम जी के पूर्वज, रघुकुल के थे पहले महाराज।। राजऋषियों की ये परंपरा, कुछ काल बाद हो गई थी लुप्त। परमेश्वर संग संबंध का, ये दिव्य ज्ञान था बडा ही गुप्त।। तुम मित्र हो तुम भक्त हो मेरे, मुझ में श्रद्धा रखते हो। प्राचीनज्ञान का रहस्य जानने की, तुम योग्यता रखते हो।। अर्जुन ने पूछा, सूर्यदेव का,आपसे पहले हुआ था जनम। फिर ज्ञान दिया कैसे उन्हें, बतलाइए जरा मुझे मधुसूदन।। कृष्ण मुस्कुराकर बोले अर्जुन, मेरे तुम्हारे हुए अनेक जन्म। मुझको सब याद रहता है, पर तुम्हें नहीं रह सकता स्मरण।। सब बीता भूलकर वापस,पृथ्वी पर जन्म लेता है जीवात्मा। मैं दिव्यरूप मे होता प्रकट, मैं अजन्मा, अविनाशी,परमात्मा।। जब जब धर्म की हानि होती है, और अधर्म बढ़ने लगता है। तब तब मेरा ह...

ऐ देश मेरे, ऐ मेरे वतन,

  ऐ देश मेरे, ऐ मेरे वतन, तुझको मेरा शत-शत है नमन। तू शान मेरी, तू जान मेरी, तेरी माटी से महका है चमन।। ऐ देश मेरे, ऐ मेरे वतन... फसलों से धरती खुशहाल रहे, नदियों में अमृतजल धार बहे। सोना चाँदी उगले कण कण, ऐ देश मेरे ऐ मेरे वतन.... यहाँ की संस्कृति,यहाँ की भाषा, विश्व के कल्याण की अभिलाषा। उच्च विचारों का सादा जीवन, ऐ देश मेरे, ऐ मेरे वतन...... रंगीले त्योहारों से सजी धरती, रिश्तो में प्यार की मस्ती बस्ती। मधुर गीतों से गूँजे है गगन, ऐ देश मेरे ऐ मेरे वतन...... नए नए पकवानों से थाल सजें, कदम कदम पर नए परिधान फबे। सभी को लुभाता है ये रहन-सहन, ऐ देश मेरे ऐ मेरे वतन....... वीरों में वीर,सज्जनों में सज्जन, महापुरुषों से है ये धरती पावन। विश्व भी सदा करता अनुसरण, ऐ देश मेरे ऐ मेरे वतन....... कोना-कोना अब स्वच्छ रहे, बच्चा-बच्चा शिक्षा ग्रहण करे। होगा भारत स्वर्ण सा संपन्न, ऐ देश मेरे ऐ मेरे वतन..... शालिनी गर्ग      

Bhagavad Gita Chapter 3 Part 2 महापुरुषों का आचरण

             महापुरुषों का आचरण हे अर्जुन तुम महापुरुष हो, सभी जनों के बनो नायक। जैसे महान कर्मों के द्वारा, आदर्श बने थे राजा जनक।। महापुरुष जिस तरह से करके, दिखलाते अपना व्यवहार। वैसे ही उनका अनुसरण, करता रहता है ये सारा संसार।। मैं सृष्टि का रचयिता, मैं तीनों लोको का पालन कर्ता। फिर भी मैं कार्य करने में, पलभर भी नहीं रुकता।। संपूर्ण विश्व करता है और,करता रहेगा मेरा अनुसरण। इसलिए अर्जुन! सावधानी से,रखना होता है हर कदम।। महापुरुषों की छोटी सी गलती, से भी अनर्थ हो जाता है। विश्वामित्र की तपस्या भंग हुई, सारा इतिहास जानता है।। अज्ञानी तो फलपाने की, चाहत का मार्ग ही चुनता है। पर विद्वान स्वार्थ त्यागकर,नए नए उदाहरण रचता है।। अज्ञानी को धीरे-धीरे अपने, आचरण से प्रेरित करता है। बिनटोके कर्मों को उनके, सत्कर्मों में श्रद्धा जगाता है।। अकसर हम सफलताएँ पाकर, खुद पर गर्व करते हैं। पर ये कार्य सारे प्रकृति के, तीन गुणों द्वारा होते हैं।। प्रकृति माँ की भाँति हमें, स्वतंत्र कार्य की इच्छा देती है। पर भगवान की अनुमति, पिता की भाँति छिपी रहती है।। हे अर्जुन! चाह...

Happy Rakshabandhan

Bhagavad Gita Chapter 3 Part 1(कर्म बंधन से मुक्ति)

कर्म बंधन से मुक्ति           ध्यान से सुनकर कृष्ण के, ये सभी अनमोल वचन ।            कुछ सकुचाकर बोले अर्जुन, हे केशव! हे जनार्दन।।        अगर कर्म करने से बढ़कर,ज्ञान योग होता है बड़ा।        फिर क्यों चाहते हैं आप मुझे,युद्ध में करना खडा।।             मैं भी तो अपने क्षत्रियकर्म का,करना चाहता हूँ त्याग ।  ज्ञानयोग पाने के लिए, लेना चाहता हूँ सन्यास।।       आपके इन उपदेशों को मैं, जैसे-जैसे समझ रहा हूँ।   पर इनके उद्देश्यों में,ना जाने कैसे उलझ रहा हूँ ।।   कृपया कर्मयोग-ज्ञानयोग को, थोड़ा सा सुलझाइए।        जो मेरे लिए कल्याणकारी हो, वही मुझको बतलाइए।।          कृष्ण जानते है,अर्जुन नहीं चाहते, भूल से भी पाप करना।                  इसलिए “निष्पाप अर्जुन” पुकारके, शुरू करते हैं उत्तर देना।।       दो तरह की निष्ठा से,हो सकता है...

Bhagavad Gita Chapter 2 Part 4(आत्मसंयमी व्यक्ति)

           आत्मसंयमी व्यक्ति     अर्जुन बोले , हे कृष्ण !, आत्मसंयमी की क्या है परिभाषा ।   कैसे उठता बैठता है वह ? कैसी होती है उसकी भाषा।। बोले भगवन् , त्यागकर अपने, हृदय की सभी लालसा । संतोषी मन से करता है वो, आत्मा की पूरी अभिलाषा ।। परमपिता से संबंध जोड़ना, यही है आत्मा की कामना । ये कामना पूर्ण होते ही, मिलती है उसको दिव्य चेतना।। चाहे दुख मिल जाए कितना , दुख से नहीं वो घबराता । कितना सुख मिल जाए चाहे, अहंकार मन में नहीं लाता।। काम , क्रोध , लोभ , मोह उसके हृदय में नहीं बसता । शुभ होगा या अशुभ होगा उसे इसका डर नहीं लगता।। कोई प्रेम करे या घृणा, पर वो नफरत नहीं करता है। ऐसी स्थिर बुद्धि वाला ही, आत्म संयमी कहलाता है।।    कछुए की भांति इंद्रियों को, खोल में समेट लेता है। सपेरे की भाँति उनको, अपने वश में कर लेता है।। पहले इच्छा जन्म लेती है, फिर उसमें मोह जगाती है। इस मोह क...