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Bhagavad Gita Chapter 2 Part 3(वेद शास्त्रों का ज्ञान)


वेद शास्त्रों का ज्ञान


कृष्ण बोले, हे पृथापुत्र! अब तक दिया था सांख्य ज्ञान।

अब मैं बतलाता हूँ तुमको, वेद-शास्त्रों में है जो बखान।।

वैदिकज्ञान ये कहता है तुम,निष्काम भाव से कर्म करो।

इस आत्मा को इन सभी, कर्म बंधनों से मुक्त करो।।

इस तरह कर्म करने से, ना होगी तुमको कोई हानि।

चाहे प्रगति होगी थोड़ी ,पर होगी नहीं कोई ग्लानि।।

श्रद्धा और विश्वास के संग, दृढ़तापूर्वक राह पर चल।

हर दिशा को देखेगा तो, बुद्धि को केवल मिलेगा छल।।

योगी को भी भटका देती हैं,ये इन्द्रियाँ हैं बडी बलवान।

इनकी पूर्ति हो नही सकती, ये है गीता का सत्यज्ञान।

वेद पढ़कर भी अल्पज्ञानी, रखते हैं इन्द्रियभोग की आशा।

मरणोपरांत स्वर्गप्राप्ति की या अच्छे जन्म की अभिलाषा।।

ये जो मोह तुम्हे उत्पन्न हुआ है,ये भी इन्द्रियों का कारण है।

भगवानविष्णु की शरण केवल, इनकी तृप्ति का निवारण है।।

जो मन में रखते हैं केवल, ऐश्वर्य प्राप्ति की ही इच्छा।

उनकी नहीं हो सकती ,भगवान की भक्ति में दृढ़ता।।

प्रकृति ने दिए हैं हमारे, स्वभाव को ये तीन गुण।

कर्मों पर डालते हैं प्रभाव, ये सतो रजो और तमो गुण।।

सतोगुण हमें सत् जीवन, जीने की प्रेरणा देता है।

पर कभी-कभी सतोगुण में भी,पाप छुपा हो सकता है।।

रजोगुण में हम अपनी,अभिलाषाओं की करते हैं पूर्ति।

जिसके कारण अकसर हम,कर बैठते हैं बडी गलती।।

तमोगुण तो काम,क्रोध और लोभ,मोह से रहता है भरा।

अपने सिवा कुछ नहीं लगता,दुनिया में इसको भला।।

वेदों का कहना है अर्जुन, इन तीनगुणों से ऊपर उठो।

अपने कर्मों को तुम केवल, परम पिता से ही जोड़ो।।

वेदों के कहे अनुसार बस, तू अपना कर्म करता चल।

इसकी चिंता मत कर तू, क्या मिलेगा इसका फल।।

कुछ कर्म देखकर लगता है, इसका फल शुभ नहीं होगा।

पर क्या जल्लाद के लिए, यमराज ने नरक लिखा होगा?

हार-जीत को भूलकर अर्जुन, बस तुम अपना कर्म करो।

अपनी इंद्रियों से ना पूछो, बस अपना तुम धर्म करो।।

हे धनंजय! इन कर्मों का भोगकरना ही इंद्रियतृप्ति है।

बुरे काम का दूर से ही त्यागना सबसे बडी युक्ति है।।

ऋषि मुनियों ने ऐसे ही पाई है जन्म-मृत्यु से मुक्ति।

गुरु शरण से, वेदज्ञान से, करके ईश्वर की भक्ति।।

वेदों में भी बातें मिलेंगी, कभी-कभी कुछ मनभावनी।

इनमें ना फँसना बस, सुनना अन्तर्रात्मा की वाणी।।

फिर कर पाओगे अपनी, दिव्य चेतना से अंगिकार।

यही कहलाता है स्वयं से, आत्मा का साक्षात्कार।।

 

 

 

         आत्मसंयमी व्यक्ति

 

अर्जुन बोले, हे कृष्ण! आत्मसंयमी की क्या है परिभाषा

कैसे उठता बैठता है वह? कैसी होती है उसकी भाषा।।

बोले भगवन्, त्यागकर जो, अपने हृदय की सभी लालसा

संतोषी मन से करता है वो, आत्मा की पूरी अभिलाषा।।

परमपिता से संबंध जोड़ना, यही है आत्मा की कामना

ये कामना पूर्ण होते ही,मिलती है उसको दिव्य चेतना।।

चाहे दुख मिल जाए कितना, दुख से नहीं वो घबराता

चाहे कितना सुख मिल जाए, अहंकार मन में नहीं लाता।।

काम, क्रोध, लोभ, मोह उसके, हृदय में नहीं बसता

शुभ होगा या अशुभ होगा,उसे इसका डर नहीं रहता ।।

कोई प्रेम करे या घृणा,पर वो नफरत नहीं करता है।

ऐसी स्थिर बुद्धि वाला ही,आत्म संयमी कहलाता है।।

कछुए की भांति इंद्रियों को, खोल में समेट लेता है।

सपेरे की भाँति वह उनको, अपने वश में कर लेता है।।

इनको वश में न करने से, बहुत अनर्थ हो सकता है।

मनुष्य न चाहते हुए भी, भव सागर में गिर सकता है

पहले इच्छा जन्म लेती है,फिर उसमें मोह जगाती है।

इस मोह को पूरा करने की,चाहत बहुत बढ़ जाती है

चाहत पूरी नही होती जब, तब क्रोध को मिलता है बल।।

दिमाग पर चढ़कर हो जाता है, इसका पल में वेगप्रबल।

क्रोध प्रबल होने पर अच्छे-बुरे का भेद मिट जाता है।।

बुद्धि भ्रमित हो जाती है, और सर्वनाश हो जाता है।

पर जो इस राग द्वेष से अपने को दूर रखता है।।

वही धीर,संयमी व्यक्ति, भगवत कृपा प्राप्त करता है

भगवत कृपा के बिना ,कभी नहीं मिल सकती शांति।।

चाहे कितना वैभव पालो ,मन में रहती है क्रांति।

ये प्रबल वेग है इन्द्रियों का, तूफान की भाँति आता है।।

मन की स्थिर नैया को अकसर दूर बहा ले जाता है।

कोशिश करते-करते भी यह लक्ष्य से भटकाता है।।

जो इंद्रियसेवक बनकर, बनता है इनका स्वामी।

वही मुनि है, वही साधु है, वही भक्त है, वही ज्ञानी।।

ज्ञानी-अज्ञानी के जीवन का, रात दिन का नाता है

अज्ञानी को जो आनंद देता,वो ज्ञानी को नही भाता है।।

नदियों के प्रबल वेगों से जैसे,सागर विचलित नहीं होता

वैसे ही इच्छाओं की लहरों से,ज्ञानी कमजोर नहीं पडता।।

इनको त्यागने से ही मिलता, शांति -प्रेम का  संसार है।

आध्यात्मिक जीवन का पथ यह, भगवत्धाम का द्वार है।।

 

 

 

 

 

 

 

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