अर्जुन
के गुरु कृष्ण
संजय
तो कक्ष में
बैठकर,धृतराष्ट्र
को सब सुना
रहे थे।
पर
कृष्ण की
इच्छा से,समय
के ये पल
थम गए थे।।
अर्जुन
का विषाद
देखकर, कृष्ण
को बहुत बुरालगा
था।
योद्धा
के नेत्रो
में क्यों, शोलों की
जगह नीर भरा
था।।
मधुसूदन
को इस अज्ञान,
के
असुर का
वध करना था।
अर्जुन
को क्षत्रियधर्म
के लिए,युद्ध
में खडा करना
था।।
हे
अर्जुन! मैंने
सब सुन लिया,
तुमने कहा
जैसे-जैसे।
पर
मुझको यह
बतलाओ,तुम्हारे
अंदर अज्ञान
आया कैसे?
कैसे
कह सकता है
वो जो, जीवन
के मूल्यों
का ज्ञाता
है।
ये
तो हर कोई
जानता है,युद्ध
को त्यागना
कायरता है।।
तुम
क्षत्रिय हो
शोभा नहीं
देता, नपुसंको
जैसी बात
करो।
तुम
शत्रुओं के
दमन करता हो,दुर्बलता
का त्याग
करो।।
अर्जुन
बोले,चाहे
अपयश फैले
मेरा,चाहे
मैं कायर कहलाऊँ।
युद्ध
जीतने से
अच्छा मैं,भीख
माँगकर जीवन
बितलाऊँ।।
हे
केशव! मेरी बुद्धि
मेरा ज्ञान,अब
मेरा साथ
नहीं देता।
क्या
अच्छा है
क्या बुरा
है, मुझको
समझ नहीं आता।।
गाण्डीव
उठाकर युद्ध
करूँ या,
मैं कहीं वन
में छिप जाऊँ।
कौरवों
को युद्ध
में मारूँ
या, उनके हाथों
से मर जाऊँ।।
जीत
कर भी हमारा
सुख, कौरवों
के रक्त से
सना होगा।
सिंहासन
पाने के
लिए,अपने पूज्यों
को खोना होगा।।
मेरी
बुद्धि मेरा
धैर्य, अब
अपना कर्तव्य
भूल गया है।
मैं
भटका राही
हूँ जो, आगे
का रास्ता
खो गया है।।
हे
केशव! इस
दुविधा से,
आप ही मुझको
संभालिए।
मेरे
गुरू बन
जाइए, मुझको
अपना शिष्य
स्वीकारिये।।
धृतराष्ट्र
को हुई थी
प्रसन्नता, अर्जुन
तो युद्ध
छोड़ चला
है।
पर
कृष्ण के
गुरु बनते
ही ,फिरसे
दिल को आघात
लगा है।।
अर्जुन
युद्ध छोड
दे ,कृष्ण,
ऐसा बिलकुल
नहीं होने
देंगे।
चतुर,ज्ञानी,होशियार
बहुत हैं
वो, अर्जुन
को मना ही
लेंगे।।
कृष्ण
हँसकर बोले,
शिष्य अर्जुन!
अब तुम मेरी
सुनो।
माना
तुम दया के
सागर हो,पर
ज्ञानी पंडित
न बनों ।।
जिनके
लिए तुम शोक
कर रहे, वे
तो केवल जीवात्मा
है।
तुम
नहीं मारोगे
फिर भी, एक
दिन तो उनको
मरना है।।
जितने
भी राजा यहाँ
है, सबका पहले
भी मरण हुआ
था।
हरकाल
में हरयुग
में हम सब
का भी जन्म
हुआ था।।
हमसब
कल भी वापस
आकर, बीते कल
को भूल जाएँगे।
शरीर
बदलकर, पहचान
बदलकर फिर
से भविष्य
बनाएँगे।।
शिशु
से युवा बनने
में भी तो,
कितना शरीर
बदलता है।
वैसे
ही मृत्यु
के बाद, आत्मा
नए आवरण में
सजता है।।
जो
धीरज रखते
हैं वे, देह
और देही का
जानते हैं
भेद ।
इस
शरीर के
मरने पर,
आँसू बहाकर
नहीं करते
खेद।।
जैसे
सर्दी और
गर्मी के,
नित बदलते
रहते हैं
मौसम।
सुख-दुख
भी आते-जाते
हैं,कभी खुशी
तो कभी है
गम।।
बस
इस मन के
स्वामी बनकर
हमें उनको
समझाना है।
हर
परिस्थिति में
समान रहकर,
बस उनको ही
सहना है।।
जो भी हो
ईश्वर की इच्छा ,ये मानकर धैर्य रखना तुम।
प्रभु का
स्मरण करते हुए केवल अपना कर्म करना तुम।।
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