अध्याय 4 (दिव्य ज्ञान का प्रथम भाग)
गीता का इतिहास
भगवान बोले,हे अर्जुन! मैं आज गीता का इतिहास
बताता हूँ।
कब किसको ये अमरज्ञान दिया, सब मैं तुमको समझाता
हूँ।।
सबसे पहले दिया था सूर्यदेव को, जो कहलाते हैं
विवस्वान।
उसके बाद मनुष्यों के जनक,मनु को दिया यह दिव्य
ज्ञान।।
मनु ने पुत्र इक्ष्वाकु को, यह ज्ञान देकर किया
अपना काज।
इक्ष्वाकु थे राम जी के पूर्वज, रघुकुल के थे
पहले महाराज।।
राजऋषियों की ये परंपरा, कुछ काल बाद हो गई थी
लुप्त।
परमेश्वर संग संबंध का, ये दिव्य ज्ञान था बडा ही
गुप्त।।
तुम मित्र हो तुम भक्त हो मेरे, मुझ में श्रद्धा
रखते हो।
प्राचीनज्ञान का रहस्य जानने की, तुम योग्यता
रखते हो।।
अर्जुन ने पूछा, सूर्यदेव का,आपसे पहले हुआ था
जनम।
फिर ज्ञान दिया कैसे उन्हें, बतलाइए जरा मुझे
मधुसूदन।।
कृष्ण मुस्कुराकर बोले अर्जुन, मेरे तुम्हारे हुए
अनेक जन्म।
मुझको सब याद रहता है, पर तुम्हें नहीं रह सकता
स्मरण।।
सब बीता भूलकर वापस,पृथ्वी पर जन्म लेता है
जीवात्मा।
मैं दिव्यरूप मे होता प्रकट, मैं अजन्मा, अविनाशी,परमात्मा।।
जब जब धर्म की हानि होती है, और अधर्म बढ़ने लगता
है।
तब तब मेरा ही अवतार, इस धरती पर अवतरित होता है।।
भक्तों का पूर्ण उद्धार करके,मैं दुष्टों का
विनाश करता हूँ।
धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में प्रकट
होता हूँ।।
क्रोध भय मोह छोडकर, जो हो गए थे मुझ पर आश्रित।
मेरा प्रेम प्राप्त किया और मेरे दिव्य ज्ञान से
हुए पवित्र।।
मुझको प्रेम करो जिस भाव से, उस भाव में मैं
मिलता हूँ।
स्वामी, सखा और प्रेमी क्या, मैं तो पुत्र भी बन
जाता हूँ।।
प्रकृति के गुणों से बँधे हैं, जो देवताओं का
पूजन करते हैं।
शीघ्रफल तो वो पा लेते हैं पर कर्मबंधन में बँध
जाते हैं।।
मानवप्रकृति के गुणों के अनुसार, मैंने रचा है
वर्णाश्रम।
समाजव्यवस्था बनाते हैं, शूद्र वैश्य, क्षत्रिय
और ब्राह्मण।।
पर इस व्यवस्था से अलग मैं, इस वर्णाश्रम का हूँ श्रष्टा।
कर्म करूँ या ना करूँ मैं, रहता हूँ मैं तो सदैव
अकर्ता।।
ना मुझे कर्मफल की चाह, ना मैं इन कर्मों में
लिप्त रहता।
जो मुझे जान लेता है, वह इन कर्मफलों में नहीं
बंधता।।
पूर्वकाल में जिसने मेरी दिव्यप्रकृति को जानकर
किया कर्म।
जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हुए, वो करके मेरा नामस्मरण ।।
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भगवान बोले,हे अर्जुन! मैं आज गीता का इतिहास बताता हूँ।
कब किसको ये अमरज्ञान दिया, सब मैं तुमको समझाता हूँ।।
सबसे पहले दिया था सूर्यदेव को, जो कहलाते हैं विवस्वान।
उसके बाद मनुष्यों के जनक,मनु को दिया यह दिव्य ज्ञान।।
मनु ने पुत्र इक्ष्वाकु को, यह ज्ञान देकर किया अपना काज।
इक्ष्वाकु थे राम जी के पूर्वज, रघुकुल के थे पहले महाराज।।
राजऋषियों की ये परंपरा, कुछ काल बाद हो गई थी लुप्त।
परमेश्वर संग संबंध का, ये दिव्य ज्ञान था बडा ही गुप्त।।
तुम मित्र हो तुम भक्त हो मेरे, मुझ में श्रद्धा रखते हो।
प्राचीनज्ञान का रहस्य जानने की, तुम योग्यता रखते हो।।
अर्जुन ने पूछा, सूर्यदेव का,आपसे पहले हुआ था जनम।
फिर ज्ञान दिया कैसे उन्हें, बतलाइए जरा मुझे मधुसूदन।।
कृष्ण मुस्कुराकर बोले अर्जुन, मेरे तुम्हारे हुए अनेक जन्म।
मुझको सब याद रहता है, पर तुम्हें नहीं रह सकता स्मरण।।
सब बीता भूलकर वापस,पृथ्वी पर जन्म लेता है जीवात्मा।
मैं दिव्यरूप मे होता प्रकट, मैं अजन्मा, अविनाशी,परमात्मा।।
जब जब धर्म की हानि होती है, और अधर्म बढ़ने लगता है।
तब तब मेरा ही अवतार, इस धरती पर अवतरित होता है।।
भक्तों का पूर्ण उद्धार करके,मैं दुष्टों का विनाश करता हूँ।
धर्म की स्थापना के लिए, मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।।
क्रोध भय मोह छोडकर, जो हो गए थे मुझ पर आश्रित।
मेरा प्रेम प्राप्त किया और मेरे दिव्य ज्ञान से हुए पवित्र।।
मुझको प्रेम करो जिस भाव से, उस भाव में मैं मिलता हूँ।
स्वामी, सखा और प्रेमी क्या, मैं तो पुत्र भी बन जाता हूँ।।
प्रकृति के गुणों से बँधे हैं, जो देवताओं का पूजन करते हैं।
शीघ्रफल तो वो पा लेते हैं पर कर्मबंधन में बँध जाते हैं।।
मानवप्रकृति के गुणों के अनुसार, मैंने रचा है वर्णाश्रम।
समाजव्यवस्था बनाते हैं, शूद्र वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण।।
पर इस व्यवस्था से अलग मैं, इस वर्णाश्रम का हूँ श्रष्टा।
कर्म करूँ या ना करूँ मैं, रहता हूँ मैं तो सदैव अकर्ता।।
ना मुझे कर्मफल की चाह, ना मैं इन कर्मों में लिप्त रहता।
जो मुझे जान लेता है, वह इन कर्मफलों में नहीं बंधता।।
पूर्वकाल में जिसने मेरी दिव्यप्रकृति को जानकर किया कर्म।
जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हुए, वो करके मेरा नामस्मरण ।।
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